महिला सशक्तिकरण पर निबंध PDF। Essay on Women Empowerment in Hindi

महिला सशक्तिकरण पर निबंध PDF । Kya Hai Mahila Sashaktikaran

आज के लेख में “महिला सशक्तिकरण पर निबंध PDF (Essay on Women Empowerment in Hindi) – Mahila Sashaktikaran Par Nibandh की जानकारी हिंदी भाषा में दी गई है। क्या आप जानते हैं, महिला सशक्तीकरण का अर्थ, मुख्य बिंदु और उद्देश्य क्या है, अगर आप नही जानते कि महिला सशक्तीकरण कब शुरू हुआ, इसकी परिभाषा क्या है तो कोई बात नहीं इस लेख Mahila Sashaktikaran Kya Hai in Hindi में आपकों कक्षा (Class) 5,6,7,8,9,10,11,12 के लिए महिला सशक्तीकरण पर निबंध 300, 400, 500, 600, 700, 800, 900, 1000 शब्दों से 2000 Words में नारी सशक्तिकरण की पूरी जानकारी दी गई है।

महिला सशक्तिकरण पर निबंध पीडीएफ

प्रस्तावना :- समाज में महिलाओं की प्रस्थिति एवं उनके अधिकारो में वृद्धि ही महिला सशक्तीकरण है। महिला.जिसे कभी मात्र भोग एवं संतानक्षेत् उत्पत्ति की जरिया समझा जाता था, आज वह पुरुषों के साथ हर कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी है। जमीन से आसमान तक कोई क्षेत्र अधूता नहीं है, जहाँ महिलाओं ने अपनी जीत का परचम न लहराया हो हालाकि यहां तक का सफर तय करने के लिए महिलाओं को काफी मुश्किली एक संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ा है।

महिला सशक्तिकरण क्या है

महिला सशक्तीकरण को बेहद आसान शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है कि इससे महिलाएं शक्तिशाली बनती है जिससे वह अपने जीवन से जुड़े सभी फैसले स्वयं ले सकती है और परिवार और समाज में अच्छे से रह सकती है। समाज में उनके वास्तविक अधिकार को प्राप्त करने के लिए उन्हें सक्षम बनाना महिला सशक्तीकरण है।

महिलाओं के प्रति अवधारणा

समकालीन समाज में नारी सम्बन्धी व्याख्या में तीन अवधारणाओं को प्रयुक्त किया जाता है- प्रथम, नारीत्व अथात् ‘जननिक’ (Gernetic) आधारित पुरुष एंवं नारी के बीच शारीरिक एवं जैविक अन्तर का स्पष्टीकरण। शारीरिक अन्तर का आधार ‘जेनेटिक’ होता है। स्त्री-पूरुष की शारीरिक बनावट, आवाज एवं जनन अंगों आदि में विभेद प्राकृतिक होता है। इन अन्तरों को पुरुष सामाजिक असमानता’ के रूप में परिवर्तित करके लिंगीय विमेद सम्बन्धी अधिकारों एवं वर्जनाओं को प्रस्तुत करता है। इसे स्त्री ने स्वीकार करके अपनी जीवन-रौली को उसी के अनुरूप ढाला इस तरह नारी के चाल-वलन, आदर्ते, तौर-तरीके, शारीरिक सजावट, वसत्रादि, आचार-व्यवहार आदि के मापदण्ड बनते चले गए।

शारीरिक सजावट, वस्त्रादि, आचार-व्यवहार द्वितीय अवधारणा ‘नारीयता (fermrnity) सम्बन्धी है। समाज एवं संस्कृति के द्वारा नारी का विशिष्ट् निर्माण ‘नारीयता है, जिसके माध्यम से उसकी प्रस्थिति, भूमिका, पहचान, सोच, मूल्य एवं अपेक्षाओं को गढ़ा जाता है। नारीयता के निर्माण की प्रक्रिया समाज की संस्थाओं, सांस्कृतिक मूल्यों एवं व्यवहारों, प्रथाओं रीति-रिवाजों, लिखित एवं मौखिक ज्ञान परम्पराओं, धार्मिक अनुष्ठानों तथा नारी- अपेक्षित विशिष्ट मूल्यों से स्थापित होती है। जन्म से ही बालिका को क्षमा, भय, लज्जा, सहनशीलता, सहिष्णुता, नमनीयता आदि के गु्णों को आात्मसात् करने की शिक्षा प्रदान की जाती है। इस तरह के समाजीकरण का निर्धारण पुरुष प्रधान मानसिकता वाले समाज द्वारा किया जाता है।

तृतीय अकधारणा ‘नारीवादी’ सम्बन्धी विचारधारा से जुड़ती है। यह विचारधारा पुरुष एवं स्त्री के बीच की असमानता को अस्वीकार करके नारी के सशक्तीकरण’ की प्रक्रिया को बौद्धिक एवं क्रियात्मक रूप प्रदान करती है।

आज के वैश्वीकरण के दौर में नारीवादी परिप्रे्ष्य बहुआयामी स्वरूप धारण कर चुका है। एक तरफ जहाँ प्राचीन अप्रसंगिक विचारधारा को चुनौतियाँ मिल रही हैं, तो दूसरी ओर पुरुष मानसिकता द्वारा प्रदत सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति को नकारा जा रहा है।

सामाजिक मापदंड

औरत’ और नारी’ के बीच की कशमकश से संघर्ष करती आज की ‘स्त्री’ में छटपटाहट है आगे बढ़ने की, जीवन एवं समाज के प्रत्येक क्षेत्र में कुछ कर गुजरने की, अपने अविराम अथक परिश्रम से पूरी दुनिया में एक नया सवैरा लाने की और एक ऐसी सशक्त इबारत लिखने की, जिसमें महिला को अबला के रूप में न देखा जाए। वास्तव में, भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में मुख्यतः व्याप्त पुरुष प्रधान समाज ने एक ऐसीसामाजिक संरचना निर्मित की, जिसमें प्रत्येक निर्णय लेने सम्बन्धी अधिकार पुरुषों के पास ही सीमित रहे। आदिम समाज से लैकर आधुनिक समाज तक “आधी दुनिया’ के प्रति ऐसा भेदभावपूर्ण नजरिया रखा गया, जिसने कमी भी स्त्रियों को एक ‘व्यक्ति’ के रूप में स्वीकार नहीं किया। उसे या तो ‘देवी’ बनाया गया या फिर भोग्य वस्तु उसके व्यक्तित्व को उभरने का अवसर तो प्रदान ही नहीं किया गया।

भारतीय समाज में भी प्राचीन नीतिकारों ने स्त्रिों को पिता, पति या पुत्र अर्थात् किसी-न-किसी पुरुष के संरक्षण में रहने की वकालत की। पुरुष प्रधान मानसिकता ने स्त्रियों को एक स्वतन्त्र व्यक्त के रूप में स्वीकार ही नहीं किया। यहीँ तक कि तथाकथित लोकता्त्रिक एवं आधुनिक मृल्यों वाले पश्चमी समाज में भी स्त्रियों को लगभग सन् 1920 ई तक व्यक्ति’ की श्रेणी में शामिल हीं किया गया। वहाँ व्यव्ति से तात्पर्य सिर्फ “पुरुष’ से था इग्लेण्ड सें व्यक्ति’ को वोट देने का अधिकार था, लेकिन स्त्रियां सन् 1918 ई. तक इससे वचित थी। अमेरिका में भी वे सन् 1920 ई. लक वंचित रहीं विश्व में पहली बार व्यक्ति के अन्तर्गत महिला को शामिल किया गया भारत में । इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कोनलिया सोराब जी (Cornolia Soraojoo) नामक महिला के वकालत करने सम्बन्धी आवेदन को एक ‘व्यक्ति’ के रूप में स्वीकार किया। अंतर्राष्ट्रीय पर भी ‘व्यक्ति’ की श्रेणी में महिलाओं को लगभग सन 1929 ई, के आसपास ही स्वीकार किया गया।

कार्यक्षेत्र में शारीरिक शोषण

जहाँ समाज की आधी आवादी को व्यक्ति का दर्जा ही प्राप्त नहीं हो, वहाँ उसके साथ ‘व्यक्ति’ जैसा व्यवहार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। नतीजा स्त्रीयों को सिर्फ एक ‘अवैतनिक श्रमिक’ एवं “उपभोग की उपभोग के रूप में देखा गया। ‘मनुष्यता’ की अपेक्षा एक मनुष्य के प्रति हो सकती है, एक वस्तु के प्रति नहीं। इसीलिए कभी समाज ने उसे ‘नगर वधू’ बनाया, तो कभी ‘देवदासी’, कभी ‘दुर्गा बनाया, तो कभी कुलीन मर्यादापूर्ण घर की बहु या फिर बाजार में विकने वाली वेश्या। पुरूष मानसिकता ने कभी भी उसे एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व के रूप में नहीं देखा।

इसके पीछे की मानसिकता की अब कितनी भी सामाजिक-सांस्कृतिक व्याख्या प्रस्तुत की जाए, लेकिनसदियों से दासता की जंजीरों में जकड़े स्त्री – समुदाय को अपनी दासता की मानसिकता से बाहर निकलने मेंअभी भी समय लगेगI। जैसे जैसे उसका अनूभव प्रत्यक्ष एवं व्यापक होता जाएगा, वैसे वैसे वह अपनेअधिकारों एवं स्वतन्त्रता-समानता के प्रति सचेत होती जाएगी।

फ्रास से प्ररम्भ सत्री- मुक्ति आन्दोलन (Feminist Moverment) ने स्त्रियों को जीवन की एक नई परिभाषा प्रदान की, उसे पुरुषो का सहचर बनने की प्रेरणा दी, अपनी स्वतन्त्रता एर्व अधिकारो के साथ खुलकर गरिमापूर्ण जीवन जीने की सीख दी। घर से बाहर निकलने एवं कामकाज करने वाली सत्री घरेलू स्त्रियों से अलग अपनी एक भाषा चाहती है, एक संस्कृति चाहती है, एक परिवेश चाहती है। और इसे हासिल करने के लिए संघर्ष भी करना चाहती है। इसलिए पुरुषों की दुनिया में खलबली है। कई बारं पुरुषों ने स्त्रियों की ज्यादती की भी शिकायतें कीं यह सम्भव है कि कृछ अति उत्साही स्त्रियाँ अपनी स्वतन्त्रता का अनुचित इस्तेमाल करती हों, उनहें यह पता नहीं कि “स्वतन्त्रता हमेशा प्रतिमानों में निहित होती है”, (freedom always lies irn norms) लेकिन ऐसी स्त्रियाँ कितनी हैं ? एक प्रतिशत भी नहीं, जबकि दूसरी तरफ प्रताड़ना देने वाले पुरुष कितने हैं, सम्भवतः 50 प्रतिशत से भी अधिका।

स्त्रियों के सन्दर्भ में प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन ने एक जगह लिखा है कि- “‘वास्तव में स्त्रियाँ जन्म से ‘अबला’ नहीं होतीं, उन्हें अबला बनाया जाता है। ” पेशे से डॉक्टर तस्लीमा नसरीन ने उदाहरण के साथ इस तथ्य की व्याख्या की है कि जन्म के समय एक ‘स्त्री-शिशु’ की जीवनी-शक्ति एक ‘पुरुष-शिशु’ की अपेक्षा अधिक प्रबल होती है, लेकिन समाज अपनी संस्कृति (रीति रिवाजों, प्रतिमानों, मूल्यों आदि) एवं जीवनशैली के द्वारा उसे सबला से अबला बनाता है।

लैंगिग भेदभाव

महिला सशक्तिकरण के सन्दर्भ में आजकल “जेन्डर’ (gender) एव “सेक्स’ (9) शब्दों के निहित अर्थको स्पष्ट करते हुए यह व्याख्या प्रस्तुत की जाती है कि ‘सेक्स’ का सम्बन्ध भौतिक या शारीरिक विशेषताओं से है, जबकि जेन्डर का सम्बन्ध मानसिकता स है। ‘ सेक्स’ का निर्धारण गुणसूत्र (chromosomes) करते हैं, जिस पर किसी का नियन्त्रण नहीं, जबकि ‘जेन्डर ‘ का निर्धारण समाज करता है अर्थात् बचपन से ही स्त्रियों के मन एवं मस्तिष्क में यह बात बैठा दी जाती है कि वह स्त्री है, इसलिए उसे अमुक अमुक गतिविधियाँ नहीं करनी चाहिए। एक 20 वर्ष की वयस्क लड़की के शाम को घर से बाहर जाते समय उसका 10 वर्ष का भाई भी साथ जाता है, उसकी रक्षा के लिए। इस तरह की हास्यास्पद गतिविधियाँ सिर्फ मानसिकता का प्रदर्शन करतीहै। स्त्री मुक्ति आन्दोलन या नारीवाद इस तरह की मानसिकता का विरोध करती है। समाज को अपनी संस्कृति के माध्यम से लोगों का समाजीकरण करते समय उन्हें ऐसे संस्कारों से दूर रखना होगा।

आज के क्रान्तिकारी दर्शन जैसे नारीवाद, पर्यावरणवाद, मानवाधिकार आदि की चेतना सत्ता मात्र को चुनौती देते हैं। स्त्री यह काम बेहतर ढंग से कर सकती है, क्योंकि वह सत्ता एवं सत्ताहीनता के अधिकतम रूपो में जानती है। वह मानव सम्बन्धों की राजनीति को सबसे अच्छी तरह समझती है, जबकि पर्यावरणवादी प्रकृति और मनुष्य के विध्वंसक द्वन्द्र का विस्तार चाहते हैं, किन्तु उत्पादन और पुनरुत्पादन के रिश्तेएक-दूसरे से अलग नहीं हैं। अत: यह अकारण नहीं है कि नारीवाद और पर्यावरणवाद की धारा अब एक-दूसरे में विलय की इच्छूक हैं। मारिया माइस और वन्दना शिवा की नवीन संयुक्त पुस्तक ‘इकोफेमिनिज्म’ इस दिशा में एक सार्थक प्रयास है।

वास्तव में, पुरुषो के केन्द्रवाद में स्त्री एक ‘पवित्र योनि’ है, एक ‘प्रजनना कोख है। समूचे शास्त्र, धर्म दर्शन, परम्परागत ज्ञान-विज्ञान सब मूलत: यही सिद्ध करते हैं। उत्तर आधुनिक स्तिथियां उसे सिर्फ पवित्र योनि या कोख नहीं रहने दे रही हैं. तो मर्दों की दुनिया में अत्यधिक व्याकुलता है।

किसी दफ्तर में काम करने वाली स्त्री, किसी बस में, मेले में, सड़क पर चलती स्री, घरेलू स्त्री की भाषा से अलग भाषा माँगती है। उसके अनुभव नए बनते हैं, यहीं उसे नई भाषा मिलती है। यहीं से नया चिन्तन शुरू होता है। उसके अनुभवों का बनना ही स्त्री का उत्तर आधुनिक चिन्तन है। तस्लीमा नसरीन इमामों की नीद उड़ा सकती है, लोरिना बॉबिट अपने अत्याचारी पति के शिश्न का उच्छेद कर सकती है और यह उनका अपना-अपना ‘गोपन’ अन्भव नहीं रहता, वह सबकी सूचना बनता है। यह स्त्री सम्बन्धी चिन्तन का एक निर्णायक पहलू है कि स्त्री के अपने अनुभवों की ‘सत्ता’ अव प्रकट होने लगी है।

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प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद ने लिखा है-

“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में, यूँ पीयूष स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सून्दर समतल में”

और ये पंक्तियाँ जन-जन की जुबान पर चढ़ गई। हमने एक जीते-जागते मनुष्य को सिर्फ एक भावनात्मक रूप दे दिया, उसे ‘देवी बना दिया, लेकिन कभी भी उसकी आकांक्षाओं की परवाह नहीं की, जो सिर्फ एक सामान्य मनुष्य के रूप में जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुष की ‘सहचरी’ बनना चाहती है, पुरुष की भाति जीवन में घर से बाहर निकलकर संघर्ष करना चाहती है। हमने कभी माँ के रूप में, कभी पत्नी के रूप में, कभी बहन के रूप में, तो कभी बेटी के रूप में, हमेशा उसका मानसिक दोहन किया। वह घर के अन्दर एक ऐसी श्रमिक बन गई है, जो बिना पारिश्रमिक लिए अत्यन्त आत्मीयता से सभी सदस्यों की सेवा करती है।

महिला सशक्तिकरण की शुरुआत

महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक अन्य प्रयास ‘महिला दिवस’ के आयोजन को माना जाता है, जिसकी शुरूआत अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आवाहन पर पहली बार 28 फरवरी, 1909 में की गई, जिसे बाद में फरवरी महीने के अन्तिम रविवार को आयोजित किया जाने लगा। आगे चलकर, सन् 1917 में रूस की महिलाओं ने ‘महिला दिवस’ पर रोटी एवं कपड़े के लिए हड़ताल की। रूस के तानाशाह शासक जार ने सता छोड़ी और बोल्शेविक क्रान्ति के बाद सत्ता में आई अन्तिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया। उस समय तत्कालीन रूस में जूलियन कैलेण्डर का प्रचलन था, जबकि शेष विश्व में ग्रेरियन कैलेण्डर प्रचलित था। दोनों कैलेण्डरों की तारीखों में मिन्नता थी। जूलियन कैलेण्डर के अनुसार, 1917 ई. में फरवरी महीने का अन्तिम रविवार 23 फरवरी को था, जबकि ग्रेगेरियन कैलेण्डर के अनुसार, वह दिन 8 मार्च था। चूँकि वर्तमान समय में पूरे विश्व में (रूस में भी) ग्रेगेरियन कैलेण्डर प्रचलित है, इसीलिए 8 मार्च को महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन सिर्फ ‘महिला दिवस’ का आयोजन करना तब तक सार्थक नहीं हो सकता, जब तक महिलाओं के प्रति सामाजिक सोच एवं संस्कृति में सकारात्मक परिवर्तन न लाया जाए। भारतीय समाज में भी, अन्य प्रगतिशील समारजों की तरह, महिलाओं की रि्थिति को ऊँचा उठाने के लिए कई प्रभावकारी कदम उठाए गए। संविधान के अनुच्छेद 15(1) के अन्तर्गत हमने लिंग के आधार पर भेदभाव को प्रतिबन्धित करने के साथ-साथ अनुच्छेद 15(2) के अन्तर्गत महिलाओं एवं बच्चों के लिए अलग नियम बनाने की भी अनुमति प्रदान की।

73वें एवं 74वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 243 (डी) एवं 243 (टी) के अंतर्गत स्थानीय निकायों के सदस्यों एवं उनके प्रमुखों की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की। इसे 110वे संविधान संशोधन विधेयक (2009 ) द्वारा एक-तिहाई अर्थात् 33% से बढ़ाकर आधा 50% तक कर दिया गया है, हालीकि यह विधेयक अभी तक लम्बित है और अधिनियम नहीं वना है। वर्ष 2010 में देश की संसद और राज्य विधान सभाओं में एक-तिहाई महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चत करने संबंधी विधेयक राज्यसभा ने पारित कर दिया, हालाकि लोकसभा ने अभी इसे पारित नहीं किया है। महिलाओं स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए किए गए अनेक प्रावधानों के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण अधिनियन घरेलू हिंसा सुरक्षा अधिनियम, 2005 है, जिसमे सभी प्रकार की हिंसा-शारीरिक, मानसिक, दहेज सम्बन्धी प्रताड़ना, कामुकता संबंधी आरोप आदि से महिलाओं के बचाव के उपाय किए गए हैं। लेकिन लिंग के आधार सबसे अधिक योगदान ‘पर्सनल लॉ’ में विद्यमान हैं, इसलिए समान सिविल संहिता (Unlorm Cywil Code) अपनाने की आवश्यकता है।

सशक्तीकरण एवं स्वावलम्बन अत्यावश्यक

आज 21वीं शताब्दी में “लैगिक न्याय’ (Gender Justice) की दिशा में बहुत कुछ हासिल किया गया है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना शेष है। नारीवादी या नारी मुक्ति आन्दोलन आज ‘इको-फेमिनिज्म’ की अवधारणा को आगे बढ़ा रहा है, जिसे वन्दना शिवा तथा मारिया माइस नामक नारीवादियों ने विकसित किया है। इस अवधारणा के तहत यह स्वीकार किया जाता है कि जिस प्रकार प्रकृति पुनरूत्पादन (reproduction) का कार्य करती है, ठीक वही भूमिका स्त्रियों की भी होती है। स्त्री भी पुनरुत्पादन की प्रक्रिया को सम्पन्न करती है। ऐसी स्थिति में हमें इस सभ्यता एवं संस्कृति के अन्तर्गति सबसे अधिक महत्त्व स्त्री-समुदाय को देना चाहिए और उसकी पुनरूत्पादन की क्षमता की पूजा करनी चाहिए जो सभ्यता एवं संस्कृति के अस्तित्व के लिए अपरिहार्थ है। लेकिन आज हम उसके इसी महान् नैसर्गिक वरदान को अभिशाप के रूप में परिवर्तित करने की कोशिश करते हैं। बलात्कार एक शारीरिक प्रताड़ना से अधिक मानसिक प्रताड़ना है। शुचिता की धारणा को विकसित करके हम उसे उस अपराध-बोध से ग्रसित कर देते हैं, जिसके लिए वह दोषी है ही नहीं। समाज को अपनी सोच का दायरा बड़ाना होगा, अपने संस्कार बदलने होंगे। महिलाओं को प्राप्त नैसर्गिक विशेषताओं का सम्भान करना होगा। स्त्री-पूरुष सम्बन्धों, समानता एवं असमानता के अनेक तत्त्व ऐसे हैं. जिनका निराकरण होना शेष है। महिलाओं के विकास के लिए महिला सशक्तीकरण एवं स्वावलम्बन अत्यावश्यक है।

महिला प्रतिभा की पहचान

आज की स्त्री न केवल पुरुषों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चलना चाहती है, बल्कि वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बहुत आगे तक जाना चाहती है, जहाँ उन्मुक्तता, सृजन एवं सबलता का अहसास हो, जहाँ उसकी प्रतिभा की पहचान हो और जहाँ उसके व्यक्तित्व का निर्माण हो। कुछ लोग विद्यमान तथ्यों को देखकर कहते हैं, क्यों? जबकि वह उन तथ्यों का स्वप्न देखती है, जो अस्तित्व में नहीं हैं और कहती है क्यों नहीं? आज की स्त्री उन्मुक्त उड़ान भरने के लिए व्याकुल है, नई सीमा को परिभाषित करने के लिए सचेत है और अपनी क्षमताओं का पूर्ण प्रदर्शन करने के लिए कृत संकल्प। उसके मार्ग में आने वाली बाधाएँ अब उसकी दृढध इच्छा शक्ति के आगे टिक नहीं पाती। उसने स्वयं को सीमित ही सही, लेकिन उस मुकाम पर स्थापित कर दिया है, जहों पुरुष प्रधान मानसिकता या समाज उसके अस्तित्व को नकार नहीं सकता, उसके व्यक्तित्व के प्रभाव से बच नहीं सकता है।

इसके बावजूद, उसे अभी मीलों लम्बा सफर तय करना है, जो कंटकपूर्ण एवं दुर्गम है, लेकिन वह मानती कि –

“वह पथ क्या, पथिक कुशलता क्या? जिसमें बिखरे शूल न हों, नाविक की धैर्य-परीक्षा क्या? यदि धाराएँ प्रतिकूल न हों।"

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उपसंहार –

महिला सशक्तिकरण लाने के लिए भारतीय समाज में ककीकत में महिलाओं के विरुद्ध फालतू की प्रथाओं के मुख्य कारणों को समझना और उन्हें हटाना जरूरी है। भारतीय समाज में समाज की पितृसत्तामक और पुरुष प्रभाव युक्त व्यवस्था है। जरुरत है कि अब वो समय आ गया है जब हमको महिलाओं के खिलाफ पुरानी सोच को बदलना होगा। ताकि महिला सशक्तीकरण अच्छे से हो पाए।

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