आज के लेख में बढ़ती सभ्यता सिकुड़ते वन पर निबंध PDF | Badhti Sabhyata Sikudte van par Nibandh (Essay on Rising Civilization Shrinking Forest) की जानकारी दी गई है।
क्या आप भी एजुकेशन के दौरान होने वाले एग्जाम में आने वाले निबंध में “बढ़ती सभ्यता सिकुड़ते वन पर निबंध” की जानकारी जानने आए हैं। Badhti Sabhyata Sikudte van par Nibandh वर्तमान समय में शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थी जो कक्षा 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 12 मैं पढ़ाई कर रहे हैं, उनके लिए बढ़ती आबादी सिकुड़ते वन पर निबंध 300, 400, 500, 600, 700, 800, 900, 1000 शब्दों में हिंदी में रिसर्च करके तैयार किया गया है ताकि एग्जाम में अच्छे से लिखे और अच्छे से अच्छे अंक प्राप्त करें।
बढ़ती सभ्यता सिकुड़ते वन पर निबंध
प्रस्तावना : (Badhti Sabhyata Sikudte van par Nibandh) आज हमारी सभ्यता दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। सभ्यता का प्रसार आज इतना हो रहा है कि हम आज प्रकृति देवी का अनादर करने में तनिक भी संकोच नहीं कर रहे हैं । यही कारण है कि आज हमारी सभ्यता के सामने प्रकृति देवी उपेक्षित हो रही है। वन्नों का घड़ाधड़ कटते जाना और धरती का नंगापन रूप दिखाई देना इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि हमने सभ्यता के नाम पर सबकी बली या तिलांजली देनी स्वीकार कर ली है।
आधुनिक सभ्यता आड़ में वनों का विनाश
बड़ती हुई सभ्यता के और विस्तार के लिए वनों का सिकड़ते जाना अथवा उन्हें साफ करके उनके स्थान पर आधुनिक सभ्यता का चिन्ह स्थापित किए जा रहे हैं सिकुड़ते वन और आधुनिक सम्यता इसी अरथ में है सभ्यताएँं तो बढ़ती जा रही हैँ और हमारे बन विनष्ट होते जा रहे हैं । हमारी प्रकृति के मुख से हरी-तिया का हट जाना हमारी उदण्डता का परिचायक है जिस देवी के ‘द्वारा हमारा लालन-पालन हुआ उसी को हम आजू उद्रास या दुःखी करने पर तुले हुए हैं। क्या यह हमारे लिए कोई शीभा या सम्मान का विषय हो सकता है?
वनों की कमी से कागज निर्माण में कमी
अव हम यह विचार कर रहे हैं कि सभ्यता की धमा चौकड़ी के कारण किस तरह हम दुःखी और विवश हो रहे हैं । वनों की कमी के कारण हमें कागज-निर्माण के लिए बास और घास सहित और आवश्य कताओं की पर्ति नहीं हो पा रही है। इससे हम कागज निर्माण के क्षेत्र में पिछड़ते जा रहे हैं और विवश हो करके हमें कागज का आयात विदेशों से करना पड़ता है।
सिकुड़ते बनो से इमारती लकड़ी का अभाव
लखे-चीड़ आदि उपयोगी पदार्थ भी वनों की कमी और अभाव के कारण हमें अब मुश्किल से प्राप्त हो रहे हैं जिससे हमारे खिलौनें के उद्योगों पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। सिकूड़ते वनों के कारण हमें विभिन्न प्रकार की इमारती लक्ड़ियां प्राप्त नहीं हो पा रही हैं जिसके परिणामस्वरूप हम इमारती उद्योव से दूर होते जा रहे हैं ।
वनों की कमी से जड़ी बूटियों का अभाव
वनों से मिलने वाली विभिन्न प्रकार की जड़ी-ब्रटियाँ भी अ्हमें प्राप्त नहीं हो रही हैं जिससे दवाईयों की अध्िक-से -अधिक तैयारी हम नहीं कर पा रहे है।
वर्षा का औसत प्रतिवर्ष कम होना
वनों के अभाव के कारण हमारे यहाँ वर्षा का औसत प्रतिवर्ष कम होता जा रहा है या कभी अधिक ओर कभी कम करके होता है जिससे कृषि, स्वाथ्य आदि की गड़बड़ी के फलस्वरूप हमारा जीवन कण् कर होता जा रहा है।
वनों की कटाई से बढ़ता बाढ़ संकट
वनों की कमी के कारण भूरमि का कटाव रूक नहीं पाता है जिससे अधिक-से-आधिक मिट्टी कट-कटकर नदी और नालों से बहती हुई जमा होती रहती है। इसलिए नदियों की पेंदी भरती जा रही है जिससे थीड़ी सी वर्षा होने पर अचानक बाढ़ का भथानक रूप दिखलाई पड़ता हुआ हृमारे जीवन को अस्त-्यस्त और त्रस्त कर देता है।
बढ़ती सभ्यता और वनों की कमी से शुद्ध जल वायु का अभाव
सिकूड़ते वनों के कारण हमें शुद्ध वायु, जल और घरातल अब मुश्क्रिल से प्राप्त होते जा रहे हैं जो हमारे स्वास्थ्य और जीवन के लिए कष्टदायक और अवरोध मात्र बनकर सिद्ध हो चका है। वनों के अभाव के कारण विभिन्न प्रकार के जंगली जीव-जन्तुबों की भारी कमी हो रही है जिससे प्रकृति का सह्ज संतुलन बिगड़ चुका है, सिकुड़ते वनों के कारण ही हम प्रकृति देवी के .स्वच्छन्द और उन्मुक्त स्वरूप को देखपाने के कारण कृत्रिमता के अंचल से ढकते जा रहे है।
उपसंहार
आज हम देख रहे हैं कि हमारे अंदर, हमारे समाज और हमारे राष्ट्र में आधुनिक सभ्यता की पताका तो फहर रही है लेकिन दूसरी ओर अशिष्टता, निरंकुशता और परम्पराओं तथा मान्यताओं का विद्र प और विकर्षण स्वरूप सिर उठा रहा है जो हमारे जीवन के परम आधार अर हमारी जननी प्रकृति माँ के लहराते बाग-बर्गीचे, वन रूपी अचल को बार-वार खिचता हुआ हमारी जीवन रेखा को मिटा देना चाहता है । अत एव इसके लिए सावधान होकर हमें वनों की रक्षा करके ही अपनी इस आधुनिक सभ्यता को आगे बढ़ाना चाहिए।
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